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Sunday, March 24, 2013

मेरी डायरी



                                                      मेरी डायरी और मेरी दो रचनाएँ 
दोस्तों मेरे साथ हुई एक घटना के विषय में आप सभी को अवगत करना चाहती  हूँ ..हुआ यूँ कि काफी वक्त से मेरी कविताओं कि डायरी मुझे नहीं मिल रही थी. इस बात से मेरे कुछ दोस्त वाकिफ भी हुए जब उनसे मेरी बात हुई तब. मेने उसको खोजा लेकिन नहीं मिल प् रही थी तों कुछ जगह मैंने नहीं खोजा कि अगर वह भी नहीं मिली तों मेरा क्या हाल होगा. ऐसा इसलिए कि एक कुछ लिखने पढ़ने वाले के लिए उसकी रचनाएँ क्या महत्व रखती है ?, ये वो ही जां सकता है जो लिखता हों . और ऐसे में उस डायरी का न मिलना, जिसमे बचपन से अब तक कि समस्त रचनाये संकलित थी  आप समझा सकते हों मेरे दिल पर क्या गुजरती थी जब जब मुझे अपनी रचनाओं से भरी उस डायरी का ख्याल आता था.
मेरे भाई ने मुझे वो १९९३ में दी थी, तब से मैंने उसमे अपनी साडी रचनाएँ  लिखी थी .. या मैं कहू मेरे जीवन के लगभग १८ वर्ष के बसंत , पतझड़ व सावन उस डायरी के पन्नों में अंकित थे. उस डायरी का न मिलना मुझे बहुत चिंता में डाल रहा था क्यों कि इस डायरी कि रचनाएँ ज्यादातर सिर्फ़ उस डायरी में ही थी. क्यों कि मैंने नेट कि दुनिया में कदम २००१ में रखा और शायरी कि दुनिया में नेट पर कदम २००३ में रखा. इस डायरी कि २००२ से पहले कि अधिकतर रचनाये मिएँ कहीं न टाइप कि न कहीं डाली ..ऐसा करने की मेरे मन ने ना जाने क्यों कभी गवाही नहीं दी. मुझे लगता था कि उस वक्त से पहले लिखी यानि २००२ तक कि रचनाये सिर्फ़ मेरे लिए है और में किसी को न दिखाऊ कि में तब क्या – और कैसा लिखती थी. बस मुझे इतना ही याद था कि मैंने उसमे १०० रचनाये लिखी हुई है और लगभग इतने से ही कुछ ज्यादा २ लाइनर्स और ४ लाइनर्स . और अब इतनी रचनाएँ लिखने वाला याद भी नहीं रख सकता . अब न वो कंप्यूटर में थी रचनाएँ और न ही कहीं और. किसी किसी दिन तों बहुत ज्यादा चिंतित रहती मैं कि क्या करू? कैसे ढूंढू? पर कुछ समझ न आता मेरे. एक एक करने जगहों को मैंने देखा , मगर नहीं मिल सकी . और में अपनी समस्त १०० रचनायों के लिए दुखी हों जाती . कि कैसे में इस गम से बाहर आऊँ. मगर कोई रास्ता न सूझता. फिर मुझे याद आया कि मेरी एक दोस्त मेरे पीछे पढ़ी रहती थी कि अपनी डायरी देदो में कुछ कवितायें नोट करके ले जाउंगी, वो बनारस कि रहने वाली थी , तब तों और चिंता हों गई मुझे कि कहीं किसी दिन उसे तों मैंने नहीं दे दी और फिर मैं उससे लेना ही भूल गई ? तब और ज्यादा दिमाग का दही होने लगा येही सोच सोच के कि अगर सच में उस को दी होगी तों कैसे मिलेगी डायरी अब. या कभी मिल भी सकेगी . फिर कभी लगता था कि किसी दिन इंस्टिट्यूट में ही मैंने रख दी हों और अब वो कहीं खो गई हों ? बस इन्ही सब उलझनों में उलझी में बहुत परेशान रहने लगी थी  कि में कैसे अपनी समस्त रचनाएं वापिस  पा  सकती हूँ ? वो मेरे लिए सिर्फ़ एक डायरी भर नहीं थी वो मेरे लिए हर वो अहसास थी जो उसमे मैंने लिखे थे. फिर मैंने  वोही किया जो अंत में सभी करते हैं. भगवान का सहारा लिया कि हे साईं राम जी मेरी डायरी दिला दो में आपको प्रसाद चढाऊँगी ( प्रसाद कि राशि का जिक्र यहाँ नहीं करना सही होगा ..वरना कहीं कुछ गलत न हों ..क्यों कि भगवन जब बिगड़ी बना सकते है तों बनी बिगाड़ भी सकते है गुस्से में).  मैंने फिर एक बार वोही जगह देखि बिना अलमारी से सामान निकाले एक एक करने सामाँ ऊपर करके देखा. किन्तु फिर वोही निराशा मेरे हाथ लगी. में और ज्यादा निराश हों गई कि क्या हुआ कहा गई मेरी डायरी . वैसे उसमे मेरी जान  बसती थी, मैं  जल्दी किसी को उस डायरी को नहीं दिखाती थी. कुछ ही लोग जानते थे उसके बारे में. में बस शांत होके बैठ गई कि क्या करूँ? फिर एक दो दिन रुक के मैंने फिर मन में सोचा कि हे साईराम मेरी डायरी दिला दो में प्रसाद चढाऊँगी. फिर मैंने अलमारी से सामान एक एक करके बहार निकलना शुरू किया मगर डायरी का कुछ नामोनिशां नहीं मिला.  फिर मेरे इष्ट देव हनुमान  जी जिनका मैंने शायद ख्याल करना छोड़ दिया था, जबकि सबसे पहले वोही मेरे दिमाग में आते थए किसी भी संकट में , और उन्होंने अपनी इस नासमझ भक्त को हमेशा संकट मुक्त करके सही मार्ग दिखाया ..एक लंबे अरसे के बाद मैंने याद किया , कि हे हनुमान जी मेरी डायरी दिला दो में आपको प्रसाद चढाऊँगी (और प्रसाद कि राशि वोही सोची जो मैंने पहले सोची थी साईं राम के टाइम ). और ये सोचके जैसे ही मिएँ अपने हाथ में अलमारी से कुछ सामान उठाया और  नीचे कुछ गिरने कि आवाज आई, मैंने उसी पल  देखा कि आँखों में सामने मेरी वोही डायरी जमीन पर गिरी हुई है . मैंने झट से उसे उठाया और भगवान को धन्यवाद दिया... उस दिन मंगलवार था इसलिए हनुमान जी का भी ख्याल आ गया था उस दिन. और मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा मैंने घर में सबको बताया मेरी डायरी खोई हुई थी, वो मुझे मिल गई है. में खुशी के साथ उसको देख रही थी. भगवान को मन ही मन धन्यवाद दिया और अलमारी का सारा सामान निकला और ठीक से लगाया. डायरी को भी फिर से मैंने वहाँ रखा जहाँ में उसको पहले रखा करती थी. क्यों कि मुझे देर सारा सामान  सही करके अलमारी में जो लगाना था. अब मुझे ख़याल आया कि मैंने तों प्रसाद बोला है उसको साईराम और हनुमान जी के  लिए वो में खरीद के कैसे लाऊँ और चढाऊँ ? क्योंकि पहले साईराम को याद किया नहीं मिली फिर हनुमान जी को याद किया मिल गई..अब में इस उलझन में पढ़ गई कि में प्रसाद एक बार बोले गए पैसो का लूं या दोइनो के लिए अलग अलग बोले गए उतने ही अमाउंट का लूं. अब फिर में सोच में पड़ गई क्यों कि मामला भगवान से जुड़ा था. फिर मैंने येही फैशाला लिया कि भले ही हनुमान जी को याद करते ही मुझे तुरंत डायरी मिल गई, लेकिन साईराम का भी इसमें कहीं न कहीं हाथ जरुर होगा कि मेरी डायरी मिल गई मुझे . तों में दो जगह अलग अलग उतने ही पैसों का प्रसाद लेके मंदिर में चढाऊँगी. मैंने ऐसा ही किया शाम को मंदिर जाके साईराम  को पहले प्रसाद से भोग लगवाया और फिर अपने इष्ट देव हनुमाना जी को भोग लगवाया, सबको प्रसाद खिलाया, तब जाके मुझे चैन आया. ये दिनाँक १९/३/१३ कि बात है. फिर एक बार मुझे अपने इष्ट पर भरोसा और ज्यादा  हों गया . आज जब मैंने अपनी डायरी को पढ़ने के लिए निकला तब मैंने देखा मेरी डायरी में मेरी १०० नहीं १५६ रचनाये मैंने लिखी हुई है और मेरी खुशी और बढ़ गई . शायद मेरी इस खुशी को आप भी जरुर समझेंगे. तों बस अब येही दुआ है कि भगवान हनुमान आप सब ही को खुश रखे आबाद रखे. 

Friday, March 15, 2013

प्रेम-बिछड़ना


बिछडना प्रेम  को पूर्ण करता है ,कहीं न कहीं ये बात एक दम सही है . क्यों कि जब प्रेम आसानी से मिल जाता है तब थोड़े दिन में प्रेम नहीं रहता है... बस एक रिश्ता भर रह जाता है जिसे दो लोग शायद जिंदगी भर ढोते है या कई बार अलग अलग रास्ते कर लेते है .
किन्तु बिछड़ने का दर्द...आह वो ही जाने जिसका कोई अपना  बिछड़ गया हों बीच रास्ते में , वो कोई भी हों सकता है भाई , बहन, माँ या बाप . तभी  उसे वो अहसास होता है जो प्रेम  को उसकी उच्चतम ऊँचाई पर ले जाके छोड़ता है. तब एक अहसास अंदर जन्म लेता है और वो इस बात को महसूस करने को हमें मजबूर कर देता है कि जाने वाला हमारे जीवन में कितना महत्व रखता था. खैर जो भी हों मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वो किसी को किसी से जुदा न करे.

१२.ऍम   १५/३/१३ 

Monday, March 11, 2013

दामिनी ..रामसिंह

इंसान सबसे नज़रे चुरा सकता है , सबको बना सकता है ...मगर जब खुद से नज़रे चुराने कि बारी आती है तब वो कहा जाये..कैसे चुराए खुद से नज़रे ?
उसकी आंखे तो उसके मन में मौजूद है, फिर भला मन से बचके कोई कैसे जी सकता है ..और वोही  आज हुआ है दामिनी के केस का मुख्या अपराधी राम सिंह के साथ. भले ही हमारी न्याय व्यवस्था दामिनी को न्याय नहीं दिला सकी मगर राम सिंह ( या जिस किसी ने उसको फंसी लगायी वो जो भी हों ) किसी ने ये काम खुद ही कर दिया...भगवन उसकी (राम सिंह ) भी आत्मा को शांति दे ताकि वो आत्मा फिर अगर नया रूप ले भी तो अच्छे  रूप में सबके सामने आये ताकि फिर किसी को इतना कष्ट वो न दे सके जितना कि दामिनी ने सहा. या भगवन जाने राम सिंह कि आतम का वो क्या करेगा ..बस एक बात फिर सार्थक सिद्ध  हुई कि भगवान के यहाँ देर है अंधेर नहीं.