आज २० वां विश्व पुस्तक मेला दिल्ली के प्रगति मैदान में शुरू हुआ . खबर क्कुछ दिन पहले ही मिल चुकी थी. एक दोस्त ने बताया था . तब से ही इंतज़ार था उन पलों का जब एक बार फिर में वह जा सकूँ. ऐसा नहीं है कि मुझे बुक पढ़ने का बहुत शौक है. पर किताबें लेने का शौक है .इस उम्मीद में कि जिस दिन मेरे पास वक्त होगा उस दिन में इत्मीनान के साथ बैठूंगी और इन किताबों में खुद को कहीं न कहीं ढूढ लुंगी . ऐसे भी इस प्रकार के मेले में जाना मुझे एक सुखद अहसास देता है . सो सोचा चलो चलके देखते है कुछ किताबें अपने लिए. और मिल लेंगे कुछ इस आभासी दुनिया के दोस्तों से वास्तविकता में. पर वक्त था ४ बजे तक का, जिसमे ग्रेटर नॉएडा से जाना आना भी मुश्किल. एक दो और लोगो को साथ में जाना था क्यों कि उन्होंने कहा था जब में जाऊ उनको साथ ले चलूँ..इसी कारण से १२.३० निकलने का वक्त तय हुआ. मगर ऐसा होता है अक्सर इंतज़ार लंबा और लंबा होता जाता है (वैसे में बता दूँ मुझे इंतज़ार करना कतई पसंद नहीं है ), ऐसा ही हुआ और १.३० पर इन्तजार जाके खत्म हुआ . वो जन आये और हम निकल पड़े दिल्ली की ओर.
करीब २.४५ पर हम दिल्ली पहुंचे और गाड़ी को पार्क करने कि जगह देखी , हम खुश कि जल्दी ही गेट न. ८ के पास हमें पार्किंग कि जगह मिल गयी. मगर अफ़सोस पता लगा टिकट लेने हमें गेट न. १ पर जाना होगा. बहुतु गुस्सा आया कि एक तो हम लेट हो चुके है और अब और लेट होगा. खैर फिर हमने गाड़ी पार्किंग से ली और चल दिए गेट न. एक कि तरफ. फिर अचानक भैया को याद आया कि वो अंदर प्रगति मैदान में ही पार्किंग कर सकते है . बस जाके वह गाड़ी पार्क कि तब राहत मिली कि कुछ टाइम तो बचा अपना. गाडी पार्क करके चल दिए स्टाल कि तरफ.
अब वक्त कम और देखने को इतना कुछ, पता चला कि २५०० स्टाल लगे है . कहा जाये क्या देखे ये सोचते हुए आगे बढ़ रहे थे . हॉल न. एक के सामने से गुजरे तो तय हुआ आते वक्त वह जायेंगे अभी आगे बढते है. आगे बढते हुए पहुंचे हॉल न. ११ .फिर देखना शुरू हुआ स्टालों को. देखा विभिन्न भाषाओं कि किताबों से भरे पड़े थे उस तरफ के स्टाल. हमें वक्त बचने के लिए तय किया कि प्रमुख प्रकाशन के स्टाल को देखा जायेगा अभी. फिर शुरू हुआ सिलसिला ..राजकमल प्रकाशन , साहित्य अकादमी , नेशनल बुक ट्रस्ट , ज्ञानपीठ प्रकाशन ,वाणी प्रकाशन इन सबको देखा. कुछ बुक्स भी ली . हिंदी के बड़े व प्रतिष्ठित नामों वाले रचनाकारों कि किताबें अपने लिए ले ली. जैसे कबीर दास, नागर्जुन , अज्ञेय , फणीश्वर नाथ रेनू,मजाज इत्यादि .
इसी बीच देखा एक जगह कुरान मिल रही है तो साथ के सभी ने लेली. में जानना चाहती थी कि इस पवित्र किताब में क्या क्या लिखा है . एक प्रकाशक के स्टाल को देखने जा ही रही थी कि एक आवाज सुनाई दी -"आप सखी है??"
मैंने पलट कर देखा दो सज्जन खड़े हुए है पीछे.
मैंने हां में जवाब दिया .
फिर सामने वाले ने कहा कि आप बहुत अच्छा लिखती है आपके ऑटोग्राफ चाहिए . मैंने कहा ऐसा तो कुछ भी नही है कि मेरे ऑटोग्राफ दूँ में . मेरे किस लिए चाहिए .
उन्होंने कहा कि हमें चाहिए.
मैं पहचानने कि कोशिश कर रही थी और वो मुस्कुरा रहे थे .ये तो तय था हम पहली बार मिले थे वास्तविकता में .
फिर एक अंदाज़ लगया कि वो कौन है. कुछ कुछ समझ में आ भी गया ..मैंने पुचा फिर कहा लगा है स्टाल आपका ?? उन्होंने बताया इसी हाल में एंट्री गेट गेट के पास.
और तब पक्का हो गया यकीन कि वो अरुण रॉय जी है ज्योतिपर्व प्रकाशन से. (मुझे पहले उन्होंने बताया था कि उनका प्रकाशन जो शुरू हो रहा है उसका स्टाल लगेगा मेले में .)
उन्होंने अपने स्टाल पर आने को कहा और हमें वह से विदा ली.
उसके बाद भैया ने बताया हिंद युग्म का भी स्टाल वही है. तो जा पहुंचे वह भी ..इस बार जब हम पहुंचे तो बहुत जयादा लोग नहीं थे वहाँ..४ लोग थे ..एक शैलेश जी ..जिन्होंने हिंद युग्म कि शुरुआत कि थी और शुरुआत दिनों से ही दोस्त बन गए थे मेरे. उसके अलावा सुनीता शानू जी और दो लोग और थे. मेरी पहचान बस शैलेश जी से थी बाकि लोगो के लिए में अपरिचित थी और वो मेरे लिए. खैर सबसे मिलके अच्छा लगा. वह कुछ किताबें देखी . शैलश जी ने फिर २७ को उनके प्रकाशन हिन्दयुग्म के पुस्तक विमोचन समारोह में आने का निमंत्रण दिया . हमने आने कि पूरी कोशिश करने कि बात कही और फिर शैलेश जी से इज़ाज़त मांगी क्यों कि अरुण जी के स्टाल कि तरफ भी जाना था. फिर एक दो प्रकाशन के तरफ जल्दी जल्दी नज़र डाली और चल दिए अरुण के ज्योतिपर्व कि तरफ. वह जाके उनके मुलाकात की और बुक्स देखी .
फिर उनसे भी इज़ाज़त ले क्यों कि वक्त ज्यादा हो चूका था. अब वापस भी आना था .
फिर चले कुछ खाना पीना किया और चल दिए . सबने कहा कि एक नज़र हॉल नो एक में डालते चले . वह जाके कुछ एक स्टाल देखे और फिर वापस चल दिए. सोचा फिर आउंगी तब राम से किताबों के साथ कुछ वक्त बिताउंगी.
एक सुखद अहसास रहा.
करीब २.४५ पर हम दिल्ली पहुंचे और गाड़ी को पार्क करने कि जगह देखी , हम खुश कि जल्दी ही गेट न. ८ के पास हमें पार्किंग कि जगह मिल गयी. मगर अफ़सोस पता लगा टिकट लेने हमें गेट न. १ पर जाना होगा. बहुतु गुस्सा आया कि एक तो हम लेट हो चुके है और अब और लेट होगा. खैर फिर हमने गाड़ी पार्किंग से ली और चल दिए गेट न. एक कि तरफ. फिर अचानक भैया को याद आया कि वो अंदर प्रगति मैदान में ही पार्किंग कर सकते है . बस जाके वह गाड़ी पार्क कि तब राहत मिली कि कुछ टाइम तो बचा अपना. गाडी पार्क करके चल दिए स्टाल कि तरफ.
अब वक्त कम और देखने को इतना कुछ, पता चला कि २५०० स्टाल लगे है . कहा जाये क्या देखे ये सोचते हुए आगे बढ़ रहे थे . हॉल न. एक के सामने से गुजरे तो तय हुआ आते वक्त वह जायेंगे अभी आगे बढते है. आगे बढते हुए पहुंचे हॉल न. ११ .फिर देखना शुरू हुआ स्टालों को. देखा विभिन्न भाषाओं कि किताबों से भरे पड़े थे उस तरफ के स्टाल. हमें वक्त बचने के लिए तय किया कि प्रमुख प्रकाशन के स्टाल को देखा जायेगा अभी. फिर शुरू हुआ सिलसिला ..राजकमल प्रकाशन , साहित्य अकादमी , नेशनल बुक ट्रस्ट , ज्ञानपीठ प्रकाशन ,वाणी प्रकाशन इन सबको देखा. कुछ बुक्स भी ली . हिंदी के बड़े व प्रतिष्ठित नामों वाले रचनाकारों कि किताबें अपने लिए ले ली. जैसे कबीर दास, नागर्जुन , अज्ञेय , फणीश्वर नाथ रेनू,मजाज इत्यादि .
इसी बीच देखा एक जगह कुरान मिल रही है तो साथ के सभी ने लेली. में जानना चाहती थी कि इस पवित्र किताब में क्या क्या लिखा है . एक प्रकाशक के स्टाल को देखने जा ही रही थी कि एक आवाज सुनाई दी -"आप सखी है??"
मैंने पलट कर देखा दो सज्जन खड़े हुए है पीछे.
मैंने हां में जवाब दिया .
फिर सामने वाले ने कहा कि आप बहुत अच्छा लिखती है आपके ऑटोग्राफ चाहिए . मैंने कहा ऐसा तो कुछ भी नही है कि मेरे ऑटोग्राफ दूँ में . मेरे किस लिए चाहिए .
उन्होंने कहा कि हमें चाहिए.
मैं पहचानने कि कोशिश कर रही थी और वो मुस्कुरा रहे थे .ये तो तय था हम पहली बार मिले थे वास्तविकता में .
फिर एक अंदाज़ लगया कि वो कौन है. कुछ कुछ समझ में आ भी गया ..मैंने पुचा फिर कहा लगा है स्टाल आपका ?? उन्होंने बताया इसी हाल में एंट्री गेट गेट के पास.
और तब पक्का हो गया यकीन कि वो अरुण रॉय जी है ज्योतिपर्व प्रकाशन से. (मुझे पहले उन्होंने बताया था कि उनका प्रकाशन जो शुरू हो रहा है उसका स्टाल लगेगा मेले में .)
उन्होंने अपने स्टाल पर आने को कहा और हमें वह से विदा ली.
उसके बाद भैया ने बताया हिंद युग्म का भी स्टाल वही है. तो जा पहुंचे वह भी ..इस बार जब हम पहुंचे तो बहुत जयादा लोग नहीं थे वहाँ..४ लोग थे ..एक शैलेश जी ..जिन्होंने हिंद युग्म कि शुरुआत कि थी और शुरुआत दिनों से ही दोस्त बन गए थे मेरे. उसके अलावा सुनीता शानू जी और दो लोग और थे. मेरी पहचान बस शैलेश जी से थी बाकि लोगो के लिए में अपरिचित थी और वो मेरे लिए. खैर सबसे मिलके अच्छा लगा. वह कुछ किताबें देखी . शैलश जी ने फिर २७ को उनके प्रकाशन हिन्दयुग्म के पुस्तक विमोचन समारोह में आने का निमंत्रण दिया . हमने आने कि पूरी कोशिश करने कि बात कही और फिर शैलेश जी से इज़ाज़त मांगी क्यों कि अरुण जी के स्टाल कि तरफ भी जाना था. फिर एक दो प्रकाशन के तरफ जल्दी जल्दी नज़र डाली और चल दिए अरुण के ज्योतिपर्व कि तरफ. वह जाके उनके मुलाकात की और बुक्स देखी .
फिर उनसे भी इज़ाज़त ले क्यों कि वक्त ज्यादा हो चूका था. अब वापस भी आना था .
फिर चले कुछ खाना पीना किया और चल दिए . सबने कहा कि एक नज़र हॉल नो एक में डालते चले . वह जाके कुछ एक स्टाल देखे और फिर वापस चल दिए. सोचा फिर आउंगी तब राम से किताबों के साथ कुछ वक्त बिताउंगी.
एक सुखद अहसास रहा.
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