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Wednesday, February 29, 2012

विश्व पुस्तक मेला

आज २० वां   विश्व पुस्तक मेला दिल्ली के प्रगति मैदान में शुरू हुआ . खबर क्कुछ दिन पहले ही मिल चुकी थी. एक दोस्त ने बताया था . तब से ही इंतज़ार था उन पलों का जब एक बार फिर में वह जा सकूँ. ऐसा नहीं है कि मुझे बुक पढ़ने का बहुत शौक है. पर किताबें लेने का शौक है .इस उम्मीद में कि जिस दिन मेरे पास वक्त होगा उस दिन में इत्मीनान के साथ बैठूंगी और इन किताबों में खुद को कहीं न कहीं ढूढ लुंगी . ऐसे  भी इस प्रकार के मेले में जाना मुझे एक सुखद अहसास देता है . सो सोचा चलो चलके देखते है कुछ किताबें अपने लिए. और मिल लेंगे कुछ इस आभासी  दुनिया के दोस्तों से वास्तविकता में. पर वक्त था ४ बजे तक का, जिसमे ग्रेटर नॉएडा से जाना  आना भी मुश्किल. एक दो और लोगो को साथ में जाना था क्यों कि उन्होंने कहा था जब में जाऊ उनको साथ ले चलूँ..इसी कारण से १२.३० निकलने का वक्त तय हुआ. मगर ऐसा होता है अक्सर इंतज़ार लंबा और लंबा होता जाता है (वैसे में बता दूँ मुझे इंतज़ार करना कतई पसंद नहीं है ), ऐसा ही हुआ और १.३० पर  इन्तजार जाके खत्म  हुआ . वो  जन आये और हम निकल पड़े दिल्ली की ओर.

करीब २.४५ पर हम दिल्ली पहुंचे और गाड़ी को पार्क करने कि जगह देखी , हम खुश कि जल्दी ही गेट न. ८ के पास हमें पार्किंग कि जगह मिल गयी. मगर अफ़सोस पता लगा टिकट लेने हमें गेट न. १ पर जाना होगा. बहुतु गुस्सा आया कि एक तो हम लेट हो चुके  है और अब और लेट होगा. खैर फिर हमने गाड़ी पार्किंग से ली  और चल दिए गेट न. एक कि तरफ. फिर अचानक भैया  को याद आया कि वो अंदर प्रगति मैदान में ही पार्किंग कर सकते है . बस जाके वह गाड़ी पार्क कि तब राहत मिली कि कुछ टाइम तो बचा अपना. गाडी पार्क करके चल दिए स्टाल कि तरफ.

अब वक्त कम और देखने को इतना कुछ, पता चला कि २५०० स्टाल लगे है . कहा जाये क्या देखे ये सोचते हुए आगे बढ़ रहे थे . हॉल न. एक के सामने से गुजरे तो तय हुआ आते वक्त वह जायेंगे अभी आगे बढते है. आगे बढते हुए पहुंचे हॉल न. ११ .फिर देखना शुरू हुआ स्टालों को. देखा विभिन्न भाषाओं कि किताबों से भरे  पड़े थे उस तरफ के स्टाल. हमें वक्त बचने के लिए तय किया कि प्रमुख प्रकाशन के स्टाल को देखा जायेगा अभी. फिर शुरू हुआ सिलसिला ..राजकमल प्रकाशन , साहित्य अकादमी , नेशनल बुक  ट्रस्ट , ज्ञानपीठ प्रकाशन ,वाणी प्रकाशन इन सबको देखा. कुछ बुक्स भी ली . हिंदी के बड़े व प्रतिष्ठित नामों वाले रचनाकारों कि किताबें अपने लिए ले ली. जैसे कबीर दास, नागर्जुन , अज्ञेय , फणीश्वर नाथ रेनू,मजाज इत्यादि .
इसी बीच देखा एक जगह कुरान मिल रही है तो साथ के सभी ने लेली. में जानना चाहती थी कि इस पवित्र किताब में क्या क्या लिखा है . एक प्रकाशक के स्टाल को देखने जा ही रही थी कि एक आवाज सुनाई दी -"आप सखी है??"
मैंने पलट कर देखा दो सज्जन खड़े हुए है पीछे.
मैंने हां में जवाब दिया .
फिर सामने वाले ने कहा कि आप बहुत अच्छा  लिखती है आपके ऑटोग्राफ चाहिए . मैंने कहा ऐसा तो कुछ भी नही है कि मेरे ऑटोग्राफ दूँ में . मेरे किस लिए चाहिए .
उन्होंने कहा कि हमें चाहिए.
मैं पहचानने कि कोशिश कर रही थी और वो मुस्कुरा रहे थे .ये तो तय था हम पहली बार मिले थे वास्तविकता में .
फिर एक अंदाज़ लगया कि वो कौन है. कुछ कुछ समझ में आ भी गया ..मैंने पुचा फिर कहा लगा है स्टाल आपका ?? उन्होंने बताया इसी हाल में एंट्री गेट गेट के पास.
और तब पक्का हो गया यकीन कि वो अरुण रॉय जी है ज्योतिपर्व प्रकाशन से. (मुझे पहले उन्होंने बताया था कि उनका प्रकाशन जो शुरू हो रहा है उसका स्टाल लगेगा मेले में .)
उन्होंने अपने स्टाल पर आने को कहा और हमें वह से विदा ली.

उसके बाद भैया  ने बताया  हिंद युग्म का भी स्टाल वही  है. तो जा पहुंचे वह भी ..इस बार जब हम पहुंचे तो बहुत जयादा लोग नहीं थे वहाँ..४ लोग थे ..एक शैलेश जी ..जिन्होंने हिंद युग्म कि शुरुआत कि थी और शुरुआत दिनों से ही दोस्त बन गए थे मेरे. उसके अलावा सुनीता शानू जी और दो लोग और थे. मेरी पहचान बस शैलेश जी से थी बाकि लोगो के लिए में अपरिचित थी और वो मेरे लिए. खैर सबसे मिलके अच्छा लगा. वह कुछ किताबें देखी . शैलश जी ने फिर २७ को उनके प्रकाशन हिन्दयुग्म के  पुस्तक विमोचन समारोह में आने का निमंत्रण दिया . हमने आने कि पूरी कोशिश करने कि बात कही और फिर शैलेश जी से इज़ाज़त मांगी क्यों कि अरुण जी के स्टाल कि तरफ भी जाना था. फिर एक दो प्रकाशन के तरफ जल्दी जल्दी नज़र डाली और चल दिए अरुण के ज्योतिपर्व कि तरफ. वह जाके उनके मुलाकात की  और बुक्स देखी .
फिर उनसे भी इज़ाज़त ले क्यों कि वक्त ज्यादा हो चूका था. अब वापस  भी आना था .
फिर चले कुछ खाना पीना किया और चल दिए . सबने कहा कि एक नज़र हॉल नो एक में डालते  चले . वह जाके कुछ एक स्टाल देखे और फिर वापस चल दिए. सोचा फिर आउंगी तब राम से किताबों के साथ कुछ वक्त बिताउंगी.
एक  सुखद अहसास रहा.


Saturday, February 18, 2012

एक दीवाना था ..एक जिंदगी दो से एक बनी


एक नज़र पढते ही वो कोमलता के साथ कैसे हृदय में उतरी,  उसकी  उसको भी खबर न हुई . खबर हुई तब जब उसके अंदर एक बैचैनी ने जन्म ले लिया और कर दिया जुदा खुद से उसे.
उसके भीतर ही भीतर रहने लगी थी वो बनके रूह य कहू साया जो आँखों के रास्ते उसमें धीरे से उतर गयी थी एक ही पल में .
खुद को रोकते रोकते भी उसने जाकर उस हसीं नाजनीन को  अहसास अपना जता ही दिया पर क्या हुआ नाराजगी ???

हां  भी या  कहे नहीं भी . हां इसलिए कि बिना कुछ कहे उस लड़की का कहीं चले जाना एक गुस्से के इज़हार जैसा लगा लड़के को. और न इसलिए कि लड़की को एक सुखद अहसास ने आ घेरा जब उसने देखा कि लड़का उसके पीछे उसको ढूंढता भुआ आ ही गया .

क्या यही सच है  एक जीवन का ???

हां अक्सर यही होता है जो हम सोचते है तस्वीर का रुख वैसा न हो दूर होता है और हम समझते है कि ऐसा है वैसा है .
लगता है ये चीज़ य इंसान हमें पसंद नहीं है ...पर जब वोही न मिले बाकि सब मिले तब अहसास होता है कि हमें तो उसी कि चाहत है बाकि चीज़े हमें खुश नहीं कर सकती . उसका मिलना हमें जिंदगी भर कि खुशिया दे सकता है .
फिर मिलना उसी इंसान से, वो भी चलते चलते कहीं यूंही अचानक  ...और वो भी उस वक्त जब उसके साये यादों के  रूप में हम पर छाए हो य हमारे ही साथ चलने पर आमादा हो , कितन सुखद आश्चर्य भरा पाल होगा न वो . बस फिर  लगता है उन ही पलों में हमारी पूरी  दुनिया सिमट जाये.
और बिना एक पल गवाए उसी पल में वो  जिंदगी जीने के लिए एक दूसरे के साथ हो लेते है .उनकी खुशिया भी तो तभी है जब वो साथ हो ..वरना...अश्क है...आहें है...तन्हाई है ...जग कि रुसवाई है .
और  उनका मिलना अहसास है , सच्चे प्यार का, समर्पण का .

कुछ ऐसा ही किस्सा होता है ..एक दीवाने का .
आज देखी  जब ये तो बहुत अपनी सी लगी या फिर   कहूँ लगा जैसे कोई  एक जिंदगी हमारे सामने  जी रहा है सच्चाई के साथ. बहुत अच्छा लगा इसको देख कर .

Friday, February 10, 2012

कुछ खुशिया

हां हां सब जानते है तेरे बारे मैं  कि तू  कैसी है.
अच्छा  क्या जानते है सब मेरे बारे में बताओ जरा ,में भी तो जानू  जो सब जानते है?

रहने दे ......
क्या रहने दूँ  ? मुझे बताओ न क्या जानते है सब .
ये  कह कर आशा ने गौर से अपने पति का मुह देखा और उसकी तरफ से किसी उत्तर कि प्रतीक्षा करने लगी.
 पर उसका पति दूसरी तरफ मुह करके बैठ गया .
तब आशा ने  अपनी मालकिन नीमा  से (जिनके घर में वो रहती थी ) कहा - दीदी मुझे ऐसे ही बोलता है ये .
नीमा  ने तब बोला क्यों बोलते हो ऐसे तुम इसको?
तब उसका पति शांत रहा कुछ नहीं बोला .
ये उनकी अक्सर होने वाली लड़ाइयों में से एक दिन का दृश्य था .
आशा जो कि एक मुश्लिम लड़की थी 'आयशा' जिसने अपनी मर्ज़ी से शादी कि थी और  वो भी एक हिंदू लड़के से.
सबकी मर्ज़ी के खिलाफ  जाके,  उसने घर से भागकर दूसरे शहर में जाकर शादी की थी ,ये सोच कर कि उसकी दुनिया प्यार से भरी रहेगी , 
अपने  प्यार के लिए अपना धर्म नाम सब बदल लिया .
लेकिन हुआ क्या? वो बैठी सोच रही थी और अपने नसीब को कोस  रही थी .
जिसके लिए घर वाले छोड़े वही इंसान उसके बारे में गलत बातें सोचता है .
वो बस और कुछ न कर सकी ..सिवाय आंसु बहाने के.
उसकी  दुनिया अब थी दो बच्चे और पति . रोज काम पर जाना और घर का काम सुबह शाम . और पति , जब मर्ज़ी हुई काम  किया, वरना घर में आराम किया.
और आशा फिर उसी पति कि हर ख्वाहिश पूरी करने के लिए जुट जाती अपने  घर में कुछ खुशिया जुटाने कि खातिर .









Friday, February 3, 2012

हिंदी में बात क्यों नहीं करते दिल्ली के लोग



हिंदी में बात क्यों नहीं करते दिल्ली के लोग, यह लिम्का बुक ऑफ रिकॉ‌र्ड्स के 23वें संस्करण में पीपुल ऑफ द ईयर से नवाजे जाने के बाद आशा भोंसले ने हिंदी में भाषण देते हुए कहा कि उन्हें इस बात का बहुत आश्चर्य है कि दिल्ली के लोग हिंदी में बात नहीं करते हैं। आशा जी का वक्तव्य था - कि मुझे लगता था कि दिल्ली में लोग हिंदी पसंद करते होंगे और इसी भाषा में बात करते होंगे। हालांकि मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि दिल्ली में भी लोग हिंदी की बजाय अंग्रेजी में बात करना ज्यादा पसंद करते हैं। आशा भोंसले ने अपना पूरा भाषण हिंदी में ही दिया। उन्होंने कहा कि लिम्का बुक ऑफ रिकॉ‌र्ड्स द्वारा सम्मानित किए जाने से वे बहुत खुश महसूस कर रही हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें खुशी है कि लोगों ने उनके हिंदी में दिए गए भाषण को समझा। अब उनको हम कैसे समझाए, कि जो दिल्ली हमारी राजधानी है वहाँ पर अधिकतर लोग अंग्रेजी को ही सामान्यतः क्यों आपस में बात-चीत का माध्यम बनाते है. जबकि हमारी सरकार कितने प्रयास हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के लिए करती . हमारे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र नॉएडा, ग्रेटर नॉएडा, फरीदाबाद या फिर राजधानी दिल्ली में अधिकांशतः लोगो का सवांद सूत्र स्थापित करने का माध्यम अंग्रेजी है और वो लोग आपस में अंग्रेजी में सवाद स्थापित कारके अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते है. हिंदीभाषी व्यक्ति उनके लिए उस अचरज के समान है, जो ना जाने किस गवई माहोल से उठकर उन तक पहुँच गया हो. यह कहा कि सोच है जो अपनी ही मात्रभाषा के प्रति हेय दृष्टि अपनाती है. सभी अपनी अपनी अंग्रेजी के द्वारा एक दूसरे पर रोब झाड़ने कि कोशिश में व्यस्त होते है ऐसे में यदि कोई अपनी मात्रभाषा को सामान देते हुए उसमे अपने विचार प्रकट करना चाहे तो भी लोगो को लगता है कि आ गए हिंदी का झंडा उठाने य इनको अंग्रेजी ज्ञान है नहीं तो हिंदी में हो गए शुरू भाषण अपना लेकर. कितना बोरिंग है हूह. पर क्या ऐसी मानसिकता रखना गलत नहीं  है भाई? अरे ठीक है आप अपने आपको अभिजात्य वर्ग का साबित करना चाहते हो तो क्या  सिर्फ अंग्रेजी आपको अभिजात्य वर्ग का साबित करने में सक्षम है. हमारी अपनी  भाषा में क्या इतना दम नहीं है ? क्यों फिर हमेशा किसी नौकरी के विज्ञापन में लिखा रहता है ..अंग्रेजी बोलने वाले को प्राथमिकता . अरे अपनी ही मात् भाषा को जब हम अपने घर में सम्मान  नहीं दे सकते है ; तो अपने आप को बहार किसी देश में  सम्मान मिलने के विषय में हम भला कैसे सोच सकते है. हम सबको आशाजी कि इस बात को गहनता  से सोचना चाहिए और अपनी भाषा हिंदी के अधिकाधिक प्रयोग हेतु प्रयास करने चाहिए .

जय हिंद ! जय भारत