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Saturday, November 8, 2025

छात्रा अमायरा

 एक छोटी सी 9-10 साल की बच्ची अमायरा, जो नीरजा मोदी स्कूल, जयपुर में पढ़ती थी , जो एक बहुत ही प्रतिष्ठित स्कूल है। चौथी क्लास में वह पढ़ती थी और बच्चों के अपशब्दों के कारण या बुलिंग के कारण उसने अपनी जान दे दी। वह स्कूल की रेलिंग से छठी मंजिल से नीचे कूद गई और उसकी बहुत दर्दनाक मौत हो गई। अब सवाल यह उठता है कि इतनी छोटी बच्ची उसको ऐसा क्या कहा क्लास में, कि उसने अपनी जान देना ज्यादा सही समझा ना कि किसी से बात करना। पर सच्चाई यह है कि उसने कोशिश की थी अपने क्लास टीचर से बात करने की। लेकिन जब मैडम ने उसकी बात नहीं समझी तो उसने ऐसा कदम उठा लिया।

1 नवंबर की इस घटना ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया और सच कहूं मैंने ना चाहते हुए वह वीडियो देख लिया जिसमें वह बच्ची रेलिंग पर चढ़ती है और नीचे कूदती है या नीचे उसका पैर स्लिप होती है। लेकिन उसने पैर नीचे किया था और वह जानबूझकर नीचे गिरी।
मैं शॉक्ड रह गई। मैं उस दृश्य को अपने अंदर से निकाल नहीं पा रही हूं। बच्ची का चेहरा जब मेरी आंखों के सामने आता है, मैं बहुत व्यथित हो जाती हूं। तब मैं सोचती हूं कि उसके परिवार वालों का क्या हाल हो रहा होगा जिनकी वह इकलौती बेटी थी। फिर मैं सोच रही हूं निरंतर, "कि ऐसा क्या है आज? कि बच्चे दिन ब दिन ऐसे नए कदम उठाते जा रहे हैं जिनका हम सोच भी नहीं सकते।
इतनी छोटी सी उम्र में किसी का किसी से नाम जोड़ देना" या फिर "इस तरह की बुलिंग से परेशान होकर एक बच्चा अपनी जान दे दे।" ये सचमुच दिल दहला देने वाली बातें हैं। इसी सब मंथन में कई दिन गुजर गए। तब मुझे लगा कि मुझे इस पर कुछ लिखना है; मुझे इस पर कुछ बोलना चाहिए। हम सबको ऐसी घटनाओं से थोड़ा सा जागृत होकर सोचना चाहिए। वैसे तो इस समाज में बहुत सारी ऐसी घटनाएं हैं जिन पर हम सबको बात करनी चाहिए। लेकिन जहां पर छोटे बच्चे इन्वॉल्व हो उन विषयों पर बात करना बहुत ज़रूरी है। मेरी भी बच्ची अभी नौ साल की कुछ महीनों में होगी। तो मुझे लगता है कि हमें बहुत संभल के उनको चीजें सिखाने की जरूरत है या उनको हर बात से, हर चीज से परेशान ना हो, ऐसा बताने की जरूरत है। ...जबकि हम अच्छी तरीके से जानते हैं कि इस समय जो पीढ़ी है उसमें धैर्य नाम की चीज है ही नहीं। फिर भी हमें कुछ तो रास्ते निकालने होंगे। कुछ तो मुद्दे ऐसे हैं जिनको हमें समझने की और समझाने की जरूरत है।
आज में नए सिरे से बचपन की संवेदनाओं को समझने की जरूरत है। क्योंकि जब हम छोटे थे तो उस समय की परिस्थितियां अलग थी और आज की परिस्थितियां एकदम अलग हैं।
बचपन का समय सबसे कोमल होता है।
यही वह उम्र है जब बच्चे दुनिया को समझना, दोस्त बनाना और अपनी पहचान गढ़ना सीखते हैं।
पर कभी-कभी, इसी मासूम उम्र में हँसी-मज़ाक का रूप चुभते तानों में बदल जाता है।
कक्षा में किसी बच्चे का नाम किसी और के साथ जोड़ देना, या उसके रूप, कपड़ों या आदतों पर हँसना — ये बातें देखने में छोटी लगती हैं, पर इनका असर बहुत गहरा होता है।
बुलींग की शुरुआत — मज़ाक या मानसिक चोट?
अक्सर बच्चे यह सोचते हैं कि वे सिर्फ़ “मज़ाक” कर रहे हैं, पर जिसे निशाना बनाया जाता है, उसके दिल में डर, शर्म और अकेलेपन का भाव बस जाता है।
9-10 साल की उम्र में जब आत्मविश्वास बन रहा होता है, तभी ऐसे ताने बच्चे की आत्मा तक पहुँच जाते हैं।
वह बच्चा धीरे-धीरे बोलना कम कर देता है, क्लास में भाग लेना छोड़ देता है, और कई बार स्कूल जाने से भी डरता है।
संवेदनाएँ — जो हम नहीं देख पाते
हर बच्चा अपने भीतर एक कोमल संसार लिए होता है।
जब उसे ताना दिया जाता है, तो वह सिर्फ़ एक वाक्य नहीं सुनता — वह खुद को छोटा, अपमानित महसूस करता है।
उसकी आँखों में सवाल उठते हैं — “क्या मैं गलत हूँ?”
यहीं से आत्म-संदेह की शुरुआत होती है।
संवेदनाओं की यही अनदेखी हमारे समाज की सबसे बड़ी कमी है — हम दूसरों के मन के घाव नहीं देख पाते।
क्या करें — बच्चों को संवेदनशील बनाना
घर और स्कूल, दोनों जगह सहानुभूति (Empathy) सिखानी ज़रूरी है।
बच्चों से कहें कि किसी पर हँसने से पहले सोचो — अगर कोई तुम पर हँसे तो कैसा लगेगा?
शिक्षकों को चाहिए कि हर बच्चे के व्यवहार पर ध्यान दें, और bullying को “मज़ाक” मानकर टालें नहीं।
माता-पिता को अपने बच्चों से रोज़ बात करनी चाहिए — “आज स्कूल कैसा रहा?” जैसी बातें दिल खोलने का रास्ता बनती हैं। जब मेरी बेटी स्कूल से घर आती है तो मैं उससे रोज पूछती हूं: "आज का स्कूल कैसा रहा? मैडम ने आज तुमसे क्या कहा और क्या किया स्कूल में आज?"
बचपन की हँसी अगर मर्यादा में रहे तो जीवनभर याद रहती है,
पर अगर वही हँसी किसी के दिल को तोड़ दे — तो वह स्मृति नहीं, आघात बन जाती है।
हम सबकी जिम्मेदारी है कि हर बच्चे को यह महसूस हो —
“मैं जैसा हूँ, वैसा ही ठीक हूँ।”
संवेदनाएँ हमारी मानवता का सबसे सुंदर रूप हैं — इन्हें जीवित रखना ही असली शिक्षा है। इनको अगली पीढ़ी में हस्तांतरित करना सबसे जरूरी कार्य है। आज की जनरेशन को यह बताना है कि किसी की बातों से परेशान ना हों और अपनी बातों द्वारा किसी को परेशान ना करें। एक हंसता खेलता, सुरक्षित बचपन। आने वाले भविष्य का मजबूत स्तंभ बनेगा ऐसा मैं सोचती हूं।
ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हर बच्चा सुरक्षित रहे और स्वस्थ रहे और हर मां बाप का आंगन सदा खिलखिलाहट से गूंजता रहे।
आज अमायरा जहां भी हो, ईश्वर उसे सद्गति दे उसे सुकून दे। इस दुनिया में तो वह परेशान होकर चली गई लेकिन आज की दुनिया ही जिस भी दुनिया में हो वह वहां खुश रहे। और मां बाप को इस दुख को सहने की शक्ति दे।
डॉ. ज्ञानेश्वरी 'सखी' सिंह,
पुणे, महाराष्ट्र

Sunday, October 5, 2025

संध्या शांताराम: "उनके कालजयी नृत्य और अभिव्यक्तियों ने भारतीय सिनेमा को समृद्ध किया।"

 




image credit:- google

संध्या शांताराम: "उनके कालजयी नृत्य और अभिव्यक्तियों ने भारतीय सिनेमा को समृद्ध किया।"

चल जा रे हट नटखट , गीत पर नृत्य करती अभिनेत्री से कौन नहीं परिचित होगा, ये गीत भारतीय सिनेमा में एक विशेष आकर्षण है। इस गीत पर औरत और आदमी की भूमिका निभाती, नृत्य कर रही अभिनेत्री का नाम है संध्या शांताराम । संध्या जी की अनोखी भाव भंगिमा इस नृत्य की जान है। 4 अक्टूबर 2025 यानि की कल, मुंबई में 87 वर्ष की आयु में संध्या जी का निधन हो गया।

भारतीय सिनेमा जगत ने कल एक युग का अंत देखा है। दिग्गज अभिनेत्री और नृत्यांगना संध्या शांताराम (जन्म नाम: विजया देशमुख) का 4 अक्टूबर 2025 को मुंबई में निधन हो गया। 13 सितंबर 1938 को जन्मी संध्या जी ने 1950 और 1960 के दशक में हिंदी और मराठी सिनेमा में अपनी अमिट छाप छोड़ी।

प्रारंभिक जीवन और सिनेमा में प्रवेश-

विजया देशमुख के रूप में जन्मी संध्या ने महान फिल्मकार वी. शांताराम के साथ काम करते हुए अपने करियर की शुरुआत की। बाद में उन्होंने वी. शांताराम से विवाह किया और संध्या शांताराम के नाम से प्रसिद्ध हुईं। यह पेशेवर और व्यक्तिगत साझेदारी भारतीय सिनेमा इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय बन गई।

महान फिल्मकार वी. शांताराम (शांताराम राजाराम वानकुड्रे) का जन्म 1901 में कोल्हापुर, महाराष्ट्र में हुआ था। वे एक पूर्ण फिल्मकार थे - एक कुशल अभिनेता, नवीन संपादक, दूरदर्शी निर्देशक और निर्माता। उन्होंने 1920 में महाराष्ट्र फिल्म कंपनी में छोटे-मोटे काम करके अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की और सुरेखा हरण (1921) में भगवान विष्णु की भूमिका निभाकर चर्चा में आए। 1929 में उन्होंने कोल्हापुर में प्रभात फिल्म कंपनी की स्थापना की और बाद में 1933 में इसे पुणे स्थानांतरित किया। जो आज फिल्म और टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया के नाम से प्रसिद्द संस्थान है ।
वी. शांताराम जी के बारे में विस्तृत चर्चा फिर कभी करुँगी हैं।


यादगार फिल्में और प्रदर्शन-

संध्या जी की फिल्मी यात्रा कई क्लासिक फिल्मों से सुशोभित है:

झनक झनक पायल बाजे (1955)
यह संगीतमय फिल्म उनके करियर की शुरुआती सफलताओं में से एक थी, जिसमें उनकी नृत्य प्रतिभा का जबरदस्त प्रदर्शन हुआ।

दो आंखें बारह हाथ (1957)
वी. शांताराम की इस अविस्मरणीय फिल्म में उनकी भूमिका आज भी याद की जाती है। यह फिल्म भारतीय सिनेमा की एक मील का पत्थर मानी जाती है।

नवरंग (1959)
इस फिल्म में संध्या जी ने विशेष ख्याति प्राप्त की। "अरे जा रे हट नटखट" गाने पर उनका नृत्य आज भी याद किया जाता है। इस भूमिका के लिए उन्होंने विशेष रूप से शास्त्रीय नृत्य सीखा और फिल्म की शूटिंग के दौरान असली हाथियों और घोड़ों के साथ निडरता से काम किया।

पिंजरा (1972)
यह मराठी फिल्म संध्या जी के करियर की सबसे यादगार फिल्मों में से एक है। मराठी सिनेमा में उनका यह प्रदर्शन अविस्मरणीय माना जाता है।

अन्य उल्लेखनीय फिल्में
जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली
अमर भूपाली

कला और प्रतिभा-

संध्या शांताराम केवल एक अभिनेत्री नहीं थीं, बल्कि एक प्रतिभाशाली नृत्यांगना भी थीं। उनकी सुंदर नृत्य शैली, भावपूर्ण अभिनय और कैमरे के सामने उनका आत्मविश्वास उन्हें उस दौर की विशिष्ट अभिनेत्रियों में से एक बनाता था। वे अपनी भूमिकाओं में लालित्य, साहस और बेजोड़ कलात्मकता का संयोजन करती थीं।
उनकी विशेषता यह थी कि वे खतरनाक दृश्यों को भी बिना किसी डर के निभाती थीं। नवरंग की शूटिंग के दौरान असली हाथियों और घोड़ों के साथ काम करना उनके समर्पण और साहस का उदाहरण है।

सिनेमा जगत को योगदान-

संध्या जी ने हिंदी और मराठी दोनों सिनेमा को समृद्ध किया। उन्होंने वी. शांताराम की कई महत्वपूर्ण फिल्मों में मुख्य भूमिकाएं निभाईं और भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम युग का हिस्सा बनीं। उनका काम भारतीय फिल्म इतिहास का एक अभिन्न अंग है।

अंतिम संस्कार-
संध्या शांताराम का अंतिम संस्कार 4 अक्टूबर 2025 को मुंबई के शिवाजी पार्क श्मशान में किया गया। फिल्म जगत और प्रशंसकों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी।

विरासत-
संध्या शांताराम ने भारतीय सिनेमा को एक समृद्ध विरासत दी है। उनकी फिल्में, उनका नृत्य और उनका अभिनय आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा। वे उस युग की प्रतिनिधि थीं जब सिनेमा में कला, संस्कृति और सौंदर्य का सुंदर मेल होता था।
भारतीय सिनेमा के इतिहास में संध्या शांताराम का नाम हमेशा स्वर्णाक्षरों में लिखा रहेगा। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे।
 

लेखिका - डॉ ज्ञानेश्वरी सिंह ,

 पुणे , महाराष्ट्र