छात्रा अमायरा
एक छोटी सी 9-10 साल की बच्ची अमायरा, जो नीरजा मोदी स्कूल, जयपुर में पढ़ती थी , जो एक बहुत ही प्रतिष्ठित स्कूल है। चौथी क्लास में वह पढ़ती थी और बच्चों के अपशब्दों के कारण या बुलिंग के कारण उसने अपनी जान दे दी। वह स्कूल की रेलिंग से छठी मंजिल से नीचे कूद गई और उसकी बहुत दर्दनाक मौत हो गई। अब सवाल यह उठता है कि इतनी छोटी बच्ची उसको ऐसा क्या कहा क्लास में, कि उसने अपनी जान देना ज्यादा सही समझा ना कि किसी से बात करना। पर सच्चाई यह है कि उसने कोशिश की थी अपने क्लास टीचर से बात करने की। लेकिन जब मैडम ने उसकी बात नहीं समझी तो उसने ऐसा कदम उठा लिया।
1 नवंबर की इस घटना ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया और सच कहूं मैंने ना चाहते हुए वह वीडियो देख लिया जिसमें वह बच्ची रेलिंग पर चढ़ती है और नीचे कूदती है या नीचे उसका पैर स्लिप होती है। लेकिन उसने पैर नीचे किया था और वह जानबूझकर नीचे गिरी।
मैं शॉक्ड रह गई। मैं उस दृश्य को अपने अंदर से निकाल नहीं पा रही हूं। बच्ची का चेहरा जब मेरी आंखों के सामने आता है, मैं बहुत व्यथित हो जाती हूं। तब मैं सोचती हूं कि उसके परिवार वालों का क्या हाल हो रहा होगा जिनकी वह इकलौती बेटी थी। फिर मैं सोच रही हूं निरंतर, "कि ऐसा क्या है आज? कि बच्चे दिन ब दिन ऐसे नए कदम उठाते जा रहे हैं जिनका हम सोच भी नहीं सकते।
इतनी छोटी सी उम्र में किसी का किसी से नाम जोड़ देना" या फिर "इस तरह की बुलिंग से परेशान होकर एक बच्चा अपनी जान दे दे।" ये सचमुच दिल दहला देने वाली बातें हैं। इसी सब मंथन में कई दिन गुजर गए। तब मुझे लगा कि मुझे इस पर कुछ लिखना है; मुझे इस पर कुछ बोलना चाहिए। हम सबको ऐसी घटनाओं से थोड़ा सा जागृत होकर सोचना चाहिए। वैसे तो इस समाज में बहुत सारी ऐसी घटनाएं हैं जिन पर हम सबको बात करनी चाहिए। लेकिन जहां पर छोटे बच्चे इन्वॉल्व हो उन विषयों पर बात करना बहुत ज़रूरी है। मेरी भी बच्ची अभी नौ साल की कुछ महीनों में होगी। तो मुझे लगता है कि हमें बहुत संभल के उनको चीजें सिखाने की जरूरत है या उनको हर बात से, हर चीज से परेशान ना हो, ऐसा बताने की जरूरत है। ...जबकि हम अच्छी तरीके से जानते हैं कि इस समय जो पीढ़ी है उसमें धैर्य नाम की चीज है ही नहीं। फिर भी हमें कुछ तो रास्ते निकालने होंगे। कुछ तो मुद्दे ऐसे हैं जिनको हमें समझने की और समझाने की जरूरत है।
आज में नए सिरे से बचपन की संवेदनाओं को समझने की जरूरत है। क्योंकि जब हम छोटे थे तो उस समय की परिस्थितियां अलग थी और आज की परिस्थितियां एकदम अलग हैं।
बचपन का समय सबसे कोमल होता है।
यही वह उम्र है जब बच्चे दुनिया को समझना, दोस्त बनाना और अपनी पहचान गढ़ना सीखते हैं।
पर कभी-कभी, इसी मासूम उम्र में हँसी-मज़ाक का रूप चुभते तानों में बदल जाता है।
कक्षा में किसी बच्चे का नाम किसी और के साथ जोड़ देना, या उसके रूप, कपड़ों या आदतों पर हँसना — ये बातें देखने में छोटी लगती हैं, पर इनका असर बहुत गहरा होता है।
बुलींग की शुरुआत — मज़ाक या मानसिक चोट?
अक्सर बच्चे यह सोचते हैं कि वे सिर्फ़ “मज़ाक” कर रहे हैं, पर जिसे निशाना बनाया जाता है, उसके दिल में डर, शर्म और अकेलेपन का भाव बस जाता है।
9-10 साल की उम्र में जब आत्मविश्वास बन रहा होता है, तभी ऐसे ताने बच्चे की आत्मा तक पहुँच जाते हैं।
वह बच्चा धीरे-धीरे बोलना कम कर देता है, क्लास में भाग लेना छोड़ देता है, और कई बार स्कूल जाने से भी डरता है।
संवेदनाएँ — जो हम नहीं देख पाते
हर बच्चा अपने भीतर एक कोमल संसार लिए होता है।
जब उसे ताना दिया जाता है, तो वह सिर्फ़ एक वाक्य नहीं सुनता — वह खुद को छोटा, अपमानित महसूस करता है।
उसकी आँखों में सवाल उठते हैं — “क्या मैं गलत हूँ?”
यहीं से आत्म-संदेह की शुरुआत होती है।
संवेदनाओं की यही अनदेखी हमारे समाज की सबसे बड़ी कमी है — हम दूसरों के मन के घाव नहीं देख पाते।
क्या करें — बच्चों को संवेदनशील बनाना
घर और स्कूल, दोनों जगह सहानुभूति (Empathy) सिखानी ज़रूरी है।
बच्चों से कहें कि किसी पर हँसने से पहले सोचो — अगर कोई तुम पर हँसे तो कैसा लगेगा?
शिक्षकों को चाहिए कि हर बच्चे के व्यवहार पर ध्यान दें, और bullying को “मज़ाक” मानकर टालें नहीं।
माता-पिता को अपने बच्चों से रोज़ बात करनी चाहिए — “आज स्कूल कैसा रहा?” जैसी बातें दिल खोलने का रास्ता बनती हैं। जब मेरी बेटी स्कूल से घर आती है तो मैं उससे रोज पूछती हूं: "आज का स्कूल कैसा रहा? मैडम ने आज तुमसे क्या कहा और क्या किया स्कूल में आज?"
बचपन की हँसी अगर मर्यादा में रहे तो जीवनभर याद रहती है,
पर अगर वही हँसी किसी के दिल को तोड़ दे — तो वह स्मृति नहीं, आघात बन जाती है।
हम सबकी जिम्मेदारी है कि हर बच्चे को यह महसूस हो —
“मैं जैसा हूँ, वैसा ही ठीक हूँ।”
संवेदनाएँ हमारी मानवता का सबसे सुंदर रूप हैं — इन्हें जीवित रखना ही असली शिक्षा है। इनको अगली पीढ़ी में हस्तांतरित करना सबसे जरूरी कार्य है। आज की जनरेशन को यह बताना है कि किसी की बातों से परेशान ना हों और अपनी बातों द्वारा किसी को परेशान ना करें। एक हंसता खेलता, सुरक्षित बचपन। आने वाले भविष्य का मजबूत स्तंभ बनेगा ऐसा मैं सोचती हूं।
ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हर बच्चा सुरक्षित रहे और स्वस्थ रहे और हर मां बाप का आंगन सदा खिलखिलाहट से गूंजता रहे।
आज अमायरा जहां भी हो, ईश्वर उसे सद्गति दे उसे सुकून दे। इस दुनिया में तो वह परेशान होकर चली गई लेकिन आज की दुनिया ही जिस भी दुनिया में हो वह वहां खुश रहे। और मां बाप को इस दुख को सहने की शक्ति दे।
डॉ. ज्ञानेश्वरी 'सखी' सिंह,
पुणे, महाराष्ट्र
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